बिलासपुर. मिर्गी बीमारी नहीं, बल्कि उससे जुड़े मिथक ही मरीज की सबसे बड़ी लड़ाई हैं। अंधविश्वास, दूरी, डर और ‘यह छूने से फैलती है’ जैसी गलतफहमियां न सिर्फ मरीज को मानसिक रूप से तोड़ती हैं, बल्कि इलाज में देरी कर उनकी जिंदगी को और कठिन बना देती हैं। डॉक्टरों की राय है कि राष्ट्रीय मिर्गी दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि मिर्गी को नहीं, मिथकों को हराना जरूरी है।
क्योंकि सही इलाज के साथ मिर्गी मरीज बिल्कुल सामान्य, सम्मानजनक और सफल जीवन जी सकते हैं। बिलासपुर के 23 वर्षीय कॉलेज छात्र रोहित विश्वकर्मा (परिवर्तित नाम) को पहली बार मिर्गी का दौरा घर में पड़ा था। परिवार उसे तुरंत अस्पताल ले गया, लेकिन असली संघर्ष अस्पताल में नहीं, समाज में शुरू हुआ। पता चलते ही क्लास में दोस्त दूर बैठने लगे, कुछ ने कहा-‘दौरा छूने से फैलता है।’ कुछ ने सलाह दे दी-‘तुम अचानक गिर सकते हो, बेहतर होगा घर से पढ़ लो।’’नौकरी की तलाश में भी जवाब मिला-‘हम जोखिम नहीं ले सकते।’ घर में आर्थिक दबाव अलग। हर महीने की दवा, जांचें और रिश्तेदारों की अजीब सलाह-‘ताबीज पहनाओ, जादू-टोना करवाओ, ठीक हो जाएगा। रोहित अकेले नहीं, देश के लाखों मरीज आज भी बीमारी से ज्यादा मिथकों से लड़ रहे हैं। इसी तरह शहर के कई लोग मिर्गी को मात देकर बेहतरीन जीवन जी रहे हैं। ये उदाहरण साबित करते हैं कि मिर्गी बाधा नहीं, बस एक मेडिकल स्थिति है जिसका इलाज संभव है। सही जानकारी, सही इलाज और समाज का सहयोग ही मरीज को आत्मविश्वास और सम्मान से भरी जिंदगी देता है।
मिथक: मिर्गी छूने से फैलती है।
सच: यह दिमाग की न्यूरोलॉजिकल बीमारी है, संक्रामक बिल्कुल नहीं।
मिथक: मिर्गी के मरीज पढ़ाई, नौकरी या शादी नहीं कर सकते।
सच: 70 से 75त्न मरीज दवा से पूरी तरह नियंत्रित रहते हैं और सामान्य जीवन जीते हैं।
मिथक: दौरा आने पर चाबी, मिर्च या पानी देना चाहिए।
सच: यह बेहद खतरनाक है- घुटन और चोट का खतरा बढ़ जाता है।
मिर्गी बीमारी नहीं, बल्कि दिमाग में असामान्य विद्युत गतिविधि का परिणाम है। सही दवा लेने पर ज्यादातर मरीजों में दौरे पूरी तरह नियंत्रित हो जाते हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में जागरूकता की कमी के कारण इलाज देर से शुरू होता है। अशुद्ध खानपान, खुले में बिकने वाला फास्ट फूड से पेट में कीड़े बनते हैं जो खून के जरिए दिमाग तक पहुंच जाते हैं और ‘न्यूरो-सिस्टि सरकोसिस’ पैदा करते हैं।







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